होने से न होने तक - 1 Sumati Saxena Lal द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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होने से न होने तक - 1

होने से न होने तक

1.

एम.ए. का रिज़ल्ट निकला था। मैं यूनिवर्सिटी जा कर अपनी मार्कशीट ले आई थी। पैंसठ प्रतिशत नम्बर आए हैं। इससे अधिक की मैंने उम्मीद भी नहीं की थी। इससे अधिक मेहनत भी नहीं की थी। अपनी डिवीज़न और नम्बरों से मैं संन्तुष्ट ही थी। किन्तु जब सुना था कि डिपार्टमैन्ट में मुझसे अधिक सिर्फ एक लड़के के नम्बर हैं तब बुरा लगा था। अपने ऊपर झुंझलाहट भी हुयी थी कि थोड़ी सी मेहनत और कर ली होती तो फर्स्ट पोज़ीशन आ जाती। पर चलो कुछ तो है ही, फिर बुरा भी नहीं। मैंने यश को फोन करके बताया था। यश ने मुझसे हज़रतगंज क्वालिटी में मिलने के लिए कहा था।

क्वालिटी की कालीन पड़ी नरम सीढ़ियॉ चढ़ कर मैं ऊपर पहुची थी तो यश वहॉ पहले से इन्तज़ार कर रहे थे। बैरा हम दोनों को पहचानता है। उसने यश के सामने की कुर्सी मेरे बैठने के लिए खींच दी थी।

मैं बैठ गयी थी,‘‘देर हुयी?’’ मैंने पूछा था और अपने सामने का गिलास उठा कर मुह से लगा लिया था।

‘‘नहीं’’ यश ने चेहरा सिकोड़ कर इन्कार में सिर हिलाया था।

मैंने पर्स से निकाल कर मार्कशीट यश के सामने बढ़ा दी थी। यश नम्बरो पर निगाह दौड़ाते रहे थे,‘‘अरे वाइवा में बहुत कम नम्बर दिए हैं। तुम्हारा वाइवा तो अच्छा हुआ था।’’

‘‘हॉ भई, यही हाईएस्ट हैं। दो लोगों को मिले हैं। बाकी तो किसी को चालीस, किसी को बयालिस, बस। अपने को पचपन मिल गये तो कोई कम हैं।’’

‘‘शिट’’ यश ने मार्कशीट मुझे लौटा दी थी,‘‘वाईवा में तो अस्सी नब्बे परसैंण्ट आराम से मिलते हैं। ठीक से देते तो पूरा परसैन्टेज ही बदल जाता।’’

दोनो हाथ की ऊॅगलियों को आपस में फॅसाए मैं आराम से बैठी रही थी, ‘‘फरक ही क्या पड़ता है। सबको तो इससे भी ख़राब मिले हैं।’’

यश ने मेरी तरफ झुंझला कर देखा था, ‘‘अजब बात करती हो, फरक कैसे नहीं पड़ता है? तुम्हारे डिपार्टमैण्ट में ठीक है पर कहीं बाहर के लिए फरक पड़ेगा ही न।’’

‘‘हॉ’’ मेरा चेहरा गंभीर हो गया था, ‘‘हॉ। सो तो मैंने सोचा ही नहीं। पता नहीं डाक्टर अवस्थी इतनी कंजूसी से नम्बर क्यों देते और दिलाते हैं। लोग कहते हैं उनकी इसी पालिसी के चलतें स्टूडैन्ट्स ने पालिटिकल साईंन्स लेना छोड़ दिया है। किसी दिन डिपार्टमैंन्ट बन्द हो जाएगा।’’

‘‘परवर्स हैं।’’यश ने अपना निर्णय सुना दिया था।

‘‘पता नहीं’’ मैं चुप हो गयी थी।

बैरा सामने मेज़ पर प्लेटें लगाने लगा था। मैं जानती हॅू कि मेरे आने से पहले यश ने आर्डर दे दिया होगा। यश मेरी पसन्द जानते हैं। मैं भी जानती हॅू कि यश ने क्या मंगाया होगा। मैं अपने सामने कपड़े का बड़ा सा सफेद नैपकिन फैलाने लगी थी।

‘‘जल्दी से खाना खा लो।’’ यश ने जेब से दो टिकट निकाले थे,‘‘मैटिनी शो देखने चलेंगे।’’

मुझे अच्छा लगा था। मैंने एक बार यश की तरफ देखा था। सोचा था यश न होते तो ज़िदगी कैसे कटती...एकदम उदास और अकेली। यश के बग़ैर तो मैं जीवन की कल्पना ही नहीं कर पाती। उसके अलावा मेरी ज़िदगी में और है ही क्या ? कुछ भी तो नही। कोई भी नहीं।

हम दोनों चुपचाप खाना खाते रहे थे।

‘‘अब ?’’यश ने मेरी तरफ देखा था,‘‘अब क्या सोचा है? आगे क्या करने का इरादा है? रिसर्च?’’

‘‘नौकरी करना चाहती हॅू यश, पर मिलना तो इतना आसान नहीं है न।’’

‘‘पर क्यों अम्बिका? नौकरी की इतनी जल्दी क्यों है तुम्हे? पी.एच.डी. ज्वाईन कर लो, उसके सहारे हॉस्टल में एकोमेडेशन भी बनी रहेगी। तीन साल और कट जाऐंगे।’’

मेरे हाथ ठहर गए थे। मैंने यश की तरफ देखा था। सिर के ऊपर छत के सहारे के लिए फिर हॉस्टल? सोचा था कहॅू या न कहॅू? यश को अपने मन की बात बताऊॅ क्या कि हॉस्टल में रहते रहते थक गई हॅू मैं, इसीलिए नौकरी करना चाहती हॅू । अब मैं घर में रहना चाहती हॅू। घर जो मेरा अपना हो। जहॉ किसी को भी मैं अपनी इच्छा से आमंत्रित कर सकू। अपनी इच्छा से ख़ातिर कर सकूं। कुछ भी खा सकूं, कुछ भी खिला सकूं । जहॉ मुझे फ्रिज खोलने में संकोच न लगे। पूरी ज़िदगी कैसी संकोच में बंधी सी बीत गयी। इतना सोचते ही लगा था कि मन में बादल घिरने लगे हों। यश ने शायद मेरे चेहरे के बदलते रंग देखे थे और प्रश्न भरी निगाह से मेरी तरफ देखा था। पर मैं चुप ही रही थी। पता नहीं यश मेरी बात समझेंगे या नही समझेंगे। बहुत अपने हैं यश। बहुत सगे से।...फिर भी।

पिक्चर के बाद यश नें मिठाई के दो डिब्बे ख़रीदे थे। एक बुआ के घर के लिए और एक अपने घर के लिए और मुझे रिक्शा करा दिया था। मैं बुआ के घर पहुची थी, तब तक दिन ढलने लग गया था। मैं सोच रही थी बुआ पूछेंगी कि कहॉ गई थी तो क्या बताऊॅगी। पर बुआ ने कुछ नहीं पूछा था,‘‘दूसरा डिब्बा मिसेज़ सहगल के घर के लिए लाई हो?’’बुआ ने सवाल किया था।

‘‘जी।’’

‘‘अभी चलोगी ? चलो चले चलते हैं।’’

‘‘शाम हो रही है। आप चलेंगी साथ में ?’’मैं एकदम ख़ुश हो गयी थी।

‘‘हॉ चलो। फूफा आज बाहर गए हुए हैं। श्रेया को साथ ले चलते हैं, कल उसकी छुट्टी है।’’ बुआ तैयार होने चली गई थीं। मैं भी नहाने के लिए कपड़े निकालने लगी थी। बुआ ने आण्टी को फोन कर दिया था। यह भी बता दिया था कि आज अम्बिका का रिज़ल्ट आया है। आण्टी बहुत ख़ुश मिली थीं...बहुत उत्तेजित हो कर मेरा स्वागत किया था। पर मुझे आण्टी कभी स्वभाविक नहीं लगतीं। उनकी हर मुद्रा बहुत योजनाबद्ध सी लगती है...एकदम ओढ़ी हुयी। थोड़ी देर बाद ही यश भी आ गए थे। आण्टी ने उसी उत्तेजित मुद्रा में मेरे रिज़ल्ट के बारे में यश को बताया था। यश ने किसी प्रकार की जानकारी ज़ाहिर नही की थी इसलिए उस बारे में मैं भी चुप रही थी। किन्तु बहुत देर तक बहुत अटपटा लगता रहा था। सब कुछ बहुत नाटकीय।

‘‘अब’’ आण्टी ने भी वही सवाल पूछा था,‘‘अब एम.ए. तो हो गया अम्बिका, अब आगे क्या इरादा है?’’

‘‘पी.एच.डी. ज्वायन कर लो।’’ यश ने फिर वही सुझाव दिया था।

‘‘पी.एच.डी.में तो बहुत समय लगता है। वैसे भी बहुत अनिश्चित सी चीज़ है। ज़रूरी भी नहीं है कि पूरी कर ही सको-बी.एड. कर लो।’’ आण्टी और बुआ की समवेत राय हुयी थी,‘‘तुम्हारी तो बचपन की एडूकेशन वैल्हम में हुयी है। बी.ए. तुमने एल.एस.आर. से किया है। अच्छे स्कूल की टीचिंग के लिए बहुत स्ट्रॅाग बायोडेटा है तुम्हारा।’’ बुआ ने कहा था।

‘‘शहर में न जाने कितने अच्छे स्कूल हैं। सुना है बिग बिज़नैस हाउसेस पब्लिक स्कूल्स खोल रहे हैं यहॉ। इनमें तो हॉस्टल भी होंगे। वार्डन का जॉब भी मिल सकता है। वह तुम्हारे लिए सबसे अच्छा है,नौकरी भी और रहने के लिए जगह भी। सेफ्टी,सिक्येरिटी,खाना पीना सब कुछ। तुम्हारे लिए तो बैस्ट आप्शन है।’’ आण्टी ने कहा था।

वार्डन की नौकरी तो शहर के बाहर हो तब भी सही ही है।’’बुआ ने सोचते हुए राय दी थी। फिर बहुत देर तक स्कूल की टीचिंग और वार्डन की नौकरी के बारे में बात होती रही थी।

मेरा मन उदास होने लगा था। बच्चों के स्कूल की नौकरी के अलावा यह लोग मेरे लिए कुछ बेहतर सोच ही नहीं सकते क्या। हमेशा हाई परसैन्टेज लाती रही हूॅ...बचपन से लेकर अब तक...फिर भी...फिर भी। शुरू से लेकर ऐमलैसली पढ़ाई करती रही। किसी ने नही सुझाया कि मेडिकल में चली जाओ...या इन्जीनियरिंग कर लो।’’ मन में गुस्सा भरने लगा था। फिर अगले ही पल मैंने अपने मन को समझाने की कोशिश की थी। शायद उन पढ़ाईयों का ख़र्चा मेरे बजट के बाहर था या शायद किसी ने मेरे लिए उतना सोचने और हिसाब लगाने की ज़रूरत ही नहीं समझी। जो भी हो, कौन जाने क्या था। किन्तु अब क्यों यह लोग बी.एड.की बात कर रहे हैं। सिर्फ बी.एड.। मन फिर से आहत होने लगा था। मैं उदास होने लगी थी। यश ने एक दो बार मेरी तरफ सवाल करती निगाह से देखा था। पर सबके सामने मैं क्या कहती। कोई न होता तब भी भला मैं क्या कहती। यश समझेंगे क्या।

हम लोग जाने के लिए उठ खड़े हुए थे तो यश और आण्टी बाहर तक छोड़ने आए थे। बुआ और आण्टी पोर्टिको के अन्दर ऊपर वाली सीढी़ पर खडे़ हो कर काफी देर तक बात करते रहे थे। मैं यश के साथ नीचे उतर आई थी। यश ने पूछा था ‘‘क्या बात है अम्बिका?’’

‘‘कुछ नहीं यश।’’ मैं खिसियाया सा हॅस दी थी पर मेरी आखों में ऑसू तैरने लगे थे। पोर्टिको के इस कोने में रोशनी का हल्का धुॅधलका भर है। यश ने न मेरी हॅसी देखी थी,न ऑसू। फिर भी पूछा था,‘‘उदास हो क्या?’’

‘‘हॉ। हूं।’’

‘‘पर क्यों अम्बिका?’’ यश ठिठक कर खड़े हो गये थे ’’अच्छा भला रिज़ल्ट तो आया है। फिर अपसैट क्यों हो?’’

‘‘पता नहीं यश। सच में नहीं पता।’’

‘‘अरे यह क्या बात हुयी। कुछ तो बात है।’’

मैं चुप रही थी। मेरी निगाहें चारों तरफ भटकती रही थीं। पोर्टिको में खड़ी यश की नई मर्सीडीज़। सामने दिखता बहुत बड़ा सा लॉन-एकदम मखमली, बहुत मोटी घास, पोर्टिको से पॉच सीढ़ी चढ़ कर चौड़ा चंद्राकार बराम्दा पीछे तक घूमा हुआ, थमलों पर चढ़ी फूलों की गच्झिन बेलें, यहॉ वहॉ रखे सुन्दर तराशे हुए गमले। लगता जैसे इनके फूल और पत्ती भी आण्टी के आदेश और इच्छा से उगते हैं-एकदम सही जगह-सब कुछ व्यवस्थित-कहीं कोई फूल, कोई एक पत्ती भी फालतू नहीं।

बुआ नीचे उतर आई थीं। मैंने आण्टी को प्रणाम किया था और यश को बाई और आकर बुआ के बगल में बैठ गई थी। घर आकर भी अजब सी बेचैनी,एक अनजानी सी अकुलाहट, एक झुंझलाहट सी बनी रही थी। जैसे मन पर अनायास कोई बोझा आ गया हो। शायद इतने सालों से एक बंधी लीक पर चलते चलते ख़ाली हो जाने की पीड़ा है यह। अभी तक तो एक क्लास के बाद दूसरा क्लास पढ़ते रहे थे। उससे अलग कुछ सोचने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी थी कभी। अब शायद स्वयं निर्णय लेने का निश्चय और उसकी स्वतंत्रता और भविष्य की अनिश्चितता परेशान कर रही है मुझे। बहुत सारे सवाल हैं मन के सामने। अब क्या करना है का निर्णय मैं ले भी लूं, पर आगे क्या होगा तो पता ही नहीं। वैसे भी अचानक अपनी ज़िदगी के सारे निर्णय अपने हाथ में ले लेना आसान है क्या? पता नहीं सब कैसे रिएक्ट करेंगे। पर मुझे यह भी समझ आ गया है कि अब बुआ और आण्टी के भरोसे अपनी ज़िदगी नहीं छोड़ सकती मैं। शायद यश के भरोसे भी नहीं। मुझे लगा था कि सब मेरी ज़िदगी को बहुत हल्के फुल्के ढंग से ले रहे हैं...खाना,कपड़ा, सिर के ऊपर एक छत और मेरी सुरक्षा बस। हो सकता है कि उन सब की इच्छा और आदेशों को एकदम अनदेखा और अनसुना करने का निर्णय परेशान कर रहा है मुझे। उसी का तनाव है मन पर या क्या है पता नही।

Sumati Saxena Lal

Sumati1944@gmail.com